रचना

पुरुषार्थ सिंह

नदी तल में सिमटती जा रही है, लहर की सांस घटती जा रही है. नए जख्मों से पिछला भर गया, मगर ये रूह फटती जा रही है. वो एक मासूम सा हथियार ले के, सहमती है औ सटती जा रही है. बड़े देखें हैं हमने तेरे जैसे भी, न जाने क्या उघटती जा रही है. सुनहरी भोर अब आने को ही है, ये काली रात छँटती जा रही है. पुरु...!



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