पटरी के पार, मृग-तृष्णा सा, दिखाई देता मेरा गाँव


रचना - ऋचा

ये काग़ज़ नहीं
रोटियाँ हैं
जो पटरी पर पड़ी हैं
वो स्याही नहीं
मेरा ख़ून है
जो उन पर बिखरा है
मैंने लिख दिया इन पर
उस सत्ता का नाम
जिसने दे दी हमें सज़ा
बिना अपराध

लिख दिया हमारा
बेबसी का गिड़गिड़ाना
यह भी कि
कैसे फैंकी गईं हमारी गठरियाँ
घरों से बाहर

इन रोटियों पर लिखे हैं नाम
उन शहरों के
जिन्हें बनाने में गल गईं हड्डियाँ
बच्चों के उजड़ गए बचपन
बीवी की ढल गई जवानी

इन पर लिखी है
एहसान फ़रामोशी
पत्थरों के इन शहरों की
जहाँ खिलाया नहीं एक निवाला
पिलाया तक नहीं पानी

इन पर लिखा है
हर छाले का हिसाब
मील के पत्थरों से की गईं बातें
पटरी के पार मृग-तृष्णा सा
दिखाई देता मेरा गाँव
चाँद तारों में ढूँढ़ी गई अपनी क़िस्मत

इन पर लिखी है उम्मीद
घर पहुँचने की, आस
बच्चों से लिपटने की
चाहत बीवी को चूमने की
उनसे कहने की
मैं हूँ...

मेरे जिस्म ने मेरे मन जितने ही घाव खाए हैं
पर
इन पटरियों पर तड़पता रहा मैं
और
मेरा ख़ून
टपकता रहा
इन रोटियों पर



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