"बाहरी हटाओ, स्थानीय लाओ" आंदोलन को नजरअंदाज करती प्रमुख पार्टियां


सम्पादकीय - जगदीश सिंह

बहुत सम्भाल के रखना शगुफ्तगी अपनी।
मिजाज पूछने वालो के काम आयेगी तनजे शगुफ्ता।।


दुर्भाग्य के दो राहे पर खङा, मऊ जनपद का घोसी संसदीय क्षेत्र एक बार फिर आसमानी उङान के लिये बाध्य हो गया है। जैसे जैसे सियासत के सुरमाओं का नाम पार्टीयों के साथ जुङ रहा है, वैसे वैसे गांव की गलियों से लेकर बाजार के चौराहों तक माहौल में बदलाव होता जा रहा है। कांग्रेस पार्टी ने बसपा के निष्काषित नेता बालकृष्ण चौहान को उम्मीदवार बनाकर जातिगत समीकरण के बदौलत अपना खोया सम्मान पाने की पुरजोर कोशिश की है। लेकिन चौहान का अतीत उन्हें पीछे पङा हुआ है। इसके पहले वे बहुजन से सासंद रह चुके हैं। लेकिन उनका कार्यकाल फिसङ्ङी साबित हुआ था। गठबन्धन ने अपना उम्मीदवार बसपा के खाते से उतार दिया जिनका इस इलाके से दूरदूर तक रिश्ता नहीं है। सियासत की पहली पारी खेलने के लिये गाजीपूर जनपद के अतुल राय को ऊम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी भी जातिगत समीकरण को देखते हुए निश्चित रूप से किसी राजभर को ही टिकट दे सकती है। यानि नेता इस संसदीय क्षेत्र का वही होगा जिनकी बिरादरी का दबदबा होगा। इसमें वासतविकता भी है। विकास पुरूष स्व कल्पनाथ राय के मरने के बाद यह इलाका नेता विहीन हो गया है। विकास का मुद्दा समाप्त हो गया है। जातिगत समीकरण हावी हो गया। कभी चौहान बिरादरी का दबदबा तो कभी राजभर बिरादरी का दबदबा। इसी के बीच ऊलझ कर रह गया है क्षेत्र का विकास? जिस तरह की सियासत शुरू हुई है, उसके हिसाब से मऊ जनपद नेता विहीन हो गया, किसी भी जाति बिरादरी में किसी भी दल में नेता नहीं हैं? ये आकलन दिल्ली लखनऊ की सियासत की बागङोर सम्भालने वाले दलों के हाईकमानों ने कर लिया है। घोसी ससंदीय क्षेत्र अपने दूर्भाग्य पर कराह रहा है। मऊ जनपद की राजनीति बाहरी नेताओं के भरोसे चल रही है। लगातार बाहरी लोग सांसद, विधायक हो रहे हैं। इस बार मऊ में एक आवाज उठी "बाहरी भगाओ, स्थानीय लाओ" लेकिन यह फार्मूला सही साबित होता नजर नहीं आ रहा है। हांलाकि लोगों में कसमसाहट है। कार्यकर्ताओं में विद्रोह है, फिर भी पार्टी का मोह है। अन्तत: वोट सब कुछ भूलकर जातिगत व्यवस्था पर ही जाता है। बाहरी भीतरी का सवाल समाप्त हो जाता है।।

न चाहते हुवे भी अनमने मन से बर्बादी के दस्तावेज पर पांच साल के लिये मुहर लगा देते हैं। सियासत के रहनुमा के चुनाव में जो गलती होती है खामियाजा भी यह इलाका ही भोगता है। इस बार तो आयातित नेता ही मैदान में है। कोई गाजीपुर तो कोई चन्दौली तो कोई बिहार से आ रहा है। समझदारी की बात इस बार भी फेल है, सियासत का यह दुरंगी खेल है। मजबूर होकर फैसला इन्हीं में करना है। किसी शायर की लिखी ये चन्द लाईने एक दम सही लग रही है। कि

तुम सियासत के दीये सबके हवाले ना करो।
शहर जल जातें है एक शख्स की नादानी से?


कभी जमाना था पूर्वान्चल में विकास दौङता था, प्रशासन हांफता था, व्यवस्था दहलती थी। राजनीति की देवी शरणागत रहती थी। जो निकल गया जुबान से वही बन जाती विकास की इबारत थी। जमाना झुक झुक कर करता था सलाम। उस नेता का नाम था शेर-ए-पूर्वाचल, राय कल्पनाथ ?

माननीय कल्पनाथ राय के देहावसान के बाद मऊ जनपद में इस धरती से कोई ऐसा पैदा नहीं हुआ जो उनकी वरासत सम्भाल सके। बिखर गया पंजाब, हरियाणा बनाने का सपना। विकास की गंगा सूख गयी यह अलग बात है कि हर पाँच साल पर सांसद विधायक चुने जाते रहे हैं। लेकिन जो बात उनमें थी वो किसी और मे नहीं रही? वाली बात ही चरितार्थ होती आ रही है। आज घोसी विधवा बिलाप करने को मजबूर है। आने वाला कल फिर सिसकता कराहता नासूर बने घाव को लेकर मायूसी भरे आलम में बोझिल कदमों से चला आ रहा है। सियासी कुर्सी फिर एक बार सशंकित है, आतंकित है, जातिवादी बुखार से तप रही है। कल का सूरज नव विहान में अगङाई लेते राजशाही सत्ता में शहंशाह की ताजपोशी का गवाह बनने के लिये आतुर है।

अब तो हम सायेगी का फर्ज अदा कर रहे है लोग।
सियासत ही दफन हो गयी भरष्टाचारी तूफान में।।


अपने और गैरों के बीच के फासले का फैसला आप को करना है। घोसी के भाग्य के दस्तावेज पर सोच समझकर हस्ताक्षर करें विकास या विनाश की इबारत आप को लिखना है।

जिस दिल में फूल खिला करते थे खिजा मुकद्दर है।
नशेमन जिसने उजाङा गैर नहीं मेरा हबीब था।।



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