हवा में ठंडक है, शायद गांव में "कास फूला" है।


कवि - अरूण सिंह "भीमा"

हवा में ठंडक है, शायद गांव में "कास फूला" है।
आज धूप का मिजाज़ किसी प्रेमिका सा है
जो बार-बार
छत पर आती जाती है, इंतजार-ए-इश्क में।
बाहर हल्का शोर है, लेकिन भीतर शून्य है।
ये दिल्ली शहर है
जहां अक्सर इंसान शून्य में ही रहता है
मानसिक, शून्यता, वैचारिक, शून्यता।
सड़कें भरी नहीं, मैनहोल खाली है
आषाढ़ सूखा-सूखा निकल गया।
मैं नई दिल्ली के पॉश एरिया में हूँ
लो मोहल्ले का भी वर्ग भेद।
शहरी उदासी है
मुआ जी•पी•एस• पड़ोसी का पता नहीं बताता
इसलिए अपनों सा भाव नहीं आता।
जल्द ही शायद पड़ोसियों की जानकारी
जी•पी•एस• बताने लगे
या कुछ ज्यादा आफर मिले
तो उनके पते के साथ हालचाल मुफ्त......

खैर

कुछ अधमरे, कुछ अहंकार द्वारा मार डाले गये
कुछ खुद में ही बस जिन्दा
ऐसे लोगो के बीच मौत हलचल कर रौनक कर जाती है
मेरी बालकनी से लगी बालकनी
में जो बैठता था, आदमी
इन जिन्दा मरे हुये लोगो में जान डाल गया
भाई निश्चित ही तू स्वर्ग में जायेगा
उसकी पत्नी और प्यारी सी तीन बेटियां
अकेली मुर्दा बस्ती में रहेंगी मुर्दा बन...

बालकनी के पास लगा पेड़
जब तक हूँ, तब तक हूँ
के भाव के साथ खड़ा रहता है
उस पर रहता, अकेला कौआ
कभी-कभी काँव कर के
औपचारिकता कर लेता है पूरी
कभी काँव-काँव नहीं करता
रस्म निभाता हुआ, अपने को विश्वास देता हुआ
कि वो जिन्दा है।
कुछ दिनों से न जाने कहां से
एक गिलहरी भी चली आई है
अकेली रोजी ढूँढती हुई
उसे देख कौए ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई
शायद कुछ जात-पात, वर्ग भेद
आदि की समस्या हो
या अति बुद्धिजीविता
या आदि हो अकेलेपन का या...।
गिलहरी उछल रही है
अभी-अभी पंगडंडियां छोड़ी हैं
कोई बात नहीं,
अकेलापन एक देह लगा रोग है
जल्दी गिरफ्त में होगी।
रोज की तरह अखबार वाला
अपनी साईकल पर युद्ध के मलबे
हत्या ,चोरी के ब्यौरे, बेजान बातों का बोझ
लादे जा रहा है
न जाने कब, हौसलों के किस्से,
सार्थक शब्द, अमन की बातें लाएगा तब तक इंतजार।
कुछ नन्हें, कुछ भारी ज़ख्म
लिए शहरी जंगल में भटकते किरदार
अचानक आवाजें करता है, शोर उठाता है,
देखता हूँ, हमारे पूर्वज (बंदर)
चले आ रहे है
शुक्र है, उन्हें देख लगभग दो साल बाद
सामूहिकता का बोध हुआ।
आते ही उन्होंने भाई चारा निभाना शुरू कर दिया
और एक अमरुद वाले से अमरुद उठा-उठा कर
आपस में बाट कर खाते हुये
भाई चारे का पाठ सिखाया
तभी कुछ पूर्वजों ने बच्चो को पढना शुरू कर दिया
उन्होंने कुछ अमरुद और लिये
अमरुद के पड़ोसी छोले भटूरे वाले ठेले पर गिराये
उससे कुछ भटूरे उठाये
और खाते हुये बच्चों को विनिमय सिद्धांत क्या होता है सिखाया।
इसे कहते है खेल-खेल में सिखाना।
इस बार का "बेस्ट टीचर अवार्ड" किसको देना चाहिये
ये बताने की जरुरत नहीं है।
कुछ बंदर डाल पकड़ कर हिला रहे हैं
जिन्हें देख एक पिता काफ़ी वर्षो बाद खोता है गांव में,
सुनाता है, अपने बेटे को
पेड़ पर चढ़, डाल हिलाकर आम गिराने की कहानी
जिसे सुन कर बच्चा पहली बार बच्चा बन कर देखता है
सपना बंदर बनने का।
पड़ोसी बुढ़िया, अपनी बहू को सुनाती है
ऊँची डाल पर बंधे हुये झूले की प्रेम कहानी
जिसे उसने छिपा दिया था, आपाधापी में
बहू जो शायद आज पहली बार बहू सी लगती है
शरमा कर देखती है, ख्वाब झूला झूलने का।
मोहल्ले के नए युवा
फिर से बच्चे बन शोर मचाते हैं
अब बच्चे बन्दर ,बन्दर बच्चे एक हो जाते हैं
डार्विन का कहा सच होता है।
काश हम सब फिर से बंदर हो जाए।

उदासी छँटी है, जिन्दा लोग सच में जिन्दा हैं
कुछ देर ही सही शहरी सुसभ्यता का चोला उतार कर
सब हल्का महसूस कर रहे हैं।
जंगली होना अच्छा है , हैं न।



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