जल्द ही दिन बदलेंगे मऊ के बुनकरों के

उत्तर-पूर्व की बिहू तो दक्षिण की पोंगल लाएगी बुनकरों के चेहरे पर खुशी
तहलका डेस्क

देश का कोई भी कोना हो, बात जब संस्कृति और परंपराओं की आती है तो यह महसूस होता है अनेकता में एकता यहां अब भी कायम है। यही वह धागा है जिसने पूरे भारत को एक सूत्र में बांधे रखा है। दक्षिण भारतीय राज्यों का प्रमुख त्योहार पोंगल हो या सुदूर पूर्व असम में मनाए जाने वाले माघ बिहू, बंगाल की दुर्गापूजा हो या बिहार का छठ पर्व, हर सांस्कृतिक उल्लास में छलकता है मऊ की साड़ियों का रंग। इन साड़ियों के बहाने पूर्वांचल का यह छोटा सा जनपद पूरे देश से जुड़कर अपनी पहचान बनाए हुए है। पोंगल और माघ बिहू पर्व की तैयारियां स्थानीय जनपद में अभी से शुरू हो गई हैं। यहां के बुनकरों को आर्डर मिलने हैं और उनके लूमों पर बुने जाने लगे हैं उल्लास के रंग।

आज के आधुनिक युग में फैशन के दौर ने जब मऊ की साड़ियों का रंग फीका किया तो अन्य राज्यों के परंपरागत पहनावों ने इसकी कलाई थाम ली। आज के दौर में आंध्र प्रदेश मऊ की साड़ियों की एक प्रमुख मंडी है। आंध्र के लोगों में यहां की साड़ियां काफी पसंद की जाती हैं। ठीक यही हाल पूर्वोत्तर के प्रमुख असम राज्य में मनाए जाने वाले माघ बिहू को लेकर भी है। असम के प्रमुख पहनावे मेखला चादर को तैयार करने में भी यहां के बुनकरों ने अब दिन रात एक कर दिया है। कोरोना के दूसरे दौर के चलते इस बार नहीं आए व्यापारी, कम मिले हैं आर्डर-

प्रतिवर्ष पोंगल और बिहूत्योहार नजदीक आते ही स्थानीय बुनकरों में भी उल्लास नजर आता है। इन त्योहारों पर अच्छे आर्डर मिलते हैं और वे दिन-रात एक करके साड़ियों की बुनाई में लग जाते हैं। दक्षिण भारत में साड़ियों के व्यवसाय के प्रमुख आढ़तिया अजहर कमाल फैजी बताते हैं कि इन दिनों दक्षिण भारत मऊ के साड़ियों की सबसे बड़ी मंडी है। हैदराबाद, बंगलौर, लातूर, पूणे आदि में यहां की साड़ियां खूब बिकती हैं। अब तो मऊ के लगभग 50 फीसद बुनकर दक्षिण के लोगों की पसंद की साड़ियां बुनने लगे हैं। इस साल कोरोना के चलते व्यापार ठप ही रहा, अनलाक के चलते उम्मीदें बंधी थी लेकिन कोरोना के दूसरे दौर ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। हर साल की अपेक्षा इस बार आर्डर बहुत कम मिले हैं फिर भी बुनकर इस उम्मीद पर काम में लगे हुए हैं कि शायद त्योहार के नजदीक आने के पहले हालात सुधरें और उनके बनाए हुए माल बिक जाएं। बिहू में होता है पूर्वोत्तर से करोड़ों का कारोबार

असम के बाजारों में वहां के प्रमुख पारंपरिक पहनावे मेखला-चादर का सबसे लोकप्रिय ब्रांड है पालकी। पालकी ब्रांड की मेखला, चादर या साड़ियां असम के हर बाजार में हर दुकान पर उपलब्ध होती हैं। यह पालकी ब्रांड मऊ में ही तैयार होता है। प्रमुख व्यवसायी व नगर पालिका अध्यक्ष तैयब पालकी बताते हैं कि बिहू त्योहार के चार चरण हैं मगर दो काफी प्रमुख हैं जनवरी में छोटा बिहू और अप्रैल में बड़ा बिहू। इन दोनों त्योहारों में पूरे वर्ष के उत्पादों का 80 फीसद माल खप जाता है और मऊ से करोड़ों रुपये का व्यवसाय होता है। वह बताते हैं कि असम की राजधानी पूर्वोत्तर के सात राज्यों का प्रमुख व्यावसायिक केंद्र है। सातों राज्यों के व्यापारी इन त्योहारों पर गोहाटी आते हैं और अपनी पसंद का माल ले जाते हैं। कोरोना के चलते असम में बाहर के लोग आ नहीं रहे हैं, इसलिए इस बार व्यवसाय प्रभावित है, आशा के अनुरूप आर्डर नहीं मिल सके हैं। सस्ती व पारंपरिक होने के कारण पसंद की जाती हैं मऊ की साड़ियां

प्रमुख साड़ी व्यवसायी अकरम प्रीमियर बताते हैं कि मऊ के लोगों में वह हुनर है कि हर राज्य में बनने वाली वहां की पारंपरिक डिजाइनों की नकल करके वैसी ही हूबहू साड़ी उतार देते हैं। मऊ में बनी साड़ियां सस्ती और सुंदर होती हैं इसलिए दूसरे राज्यो में काफी पसंद की जाती हैं। चूंकि पोंगल हो या बीहू दोनों त्योहार किसानों से जुड़े हैं। फसलों के तैयार होने का उल्लास मनाया जाता है, इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों के मध्यमवर्गीय और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बीच काफी आसानी से जगह बना लेती हैं। अपने हुनर के बल पर राष्ट्रपति से पुरस्कार पा चुके हैं सरदार बुनकर

नगर के प्रमुख साड़ी निर्माता सरदार बुनकर ने लूम से बनी साड़ियों पर अपनी अनोखी कलाकृतियों की वह छाप छोड़ी, कि उसकी सराहना किए बगैर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी न रह सकी थीं। अपनी कलाकारी के दम पर सरदार को राष्ट्रपति ने सम्मानित किया था। सरदार बुनकर ने विभिन्न राज्यों की संस्कृति, परंपरा और कला को साड़ियों में उकेर कर उसके माध्यम से मऊ के हुनर को अनोखी पहचान दी है। मुगल काल में भी ढाका तक जाती थीं मऊ की साड़ियां

वर्तमान मऊ शहर को मुगल सम्राट औरंगजेब की बहन जहांआरा ने बसाया था। गोरखपुर जाते समय यहां का भौगोलिक और प्राकृतिक परिवेश उन्हें ऐसा भाया कि वह यहीं की होकर रह गईं। वर्तमान शाही मस्जिद व कटरा उनकी बनवाई हुई इमारते हैं। कपड़ों की शौकीन इस राजकुमारी के साथ बुनकरों की एक टोली थी, जो यहीं आबाद हो गई। इन बुनकर कलाकारों के बनाए हुए कपड़े इतने महीन होते थे कि एक अंगूठी से पार हो जाते थे। उस दौर में भी यहां का व्यवसाय ढाका, नेपाल और संपूर्ण भारत में फैला हुआ था। यहां की बनने वाली साड़ियां अपनी विशेषताओं और कला के बल पर प्रदेश के लगभग हर राज्य के वासियों को हमेशा से मोहती रही हैं। समय के साथ जब कभी मऊ की पारंपरिक साड़ियों नए फैशन के दौर में बिछड़ने का अंधेरा महसूस किया तो खुद की राह बदल कर यह गैर राज्यों के उल्लास और परंपराओं को पहचान देना शुरू कीं। कहने का तात्पर्य यह कि मुगल काल से चली आ रही इस खानदानी विरासत को पीढि़यों ने संजोया तो अपना अस्तित्व बचाए रखने को समय के साथ नए बाजार चुने, जहां परंपराएं कायम रह सकें।



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