शहरों की ओर दौडते लोग, सूने होते मकान और मोहल्ले


लेख - प्रदीप कुमार पाण्डेय

शायद हमने कभी ध्यान से देखा नहीं या फिर हमारा गली मुहल्ले से इतना वास्ता नही पड़ता, हम बस तेजी से अपनी बाइक या कार से सीधे अपने काम पर निकल जाते है और वापस अपने घर आ जाते हैं। इसलिए शायद हमारी सुने होते मकानों और मोहल्लों पर नज़र जा नहीं पाती है या फिर हम खुद अपना जन्म स्थान छोड़कर किसी बड़े शहर में आकर बस गए हैं, तो हमें आभास ही नहीं की कब हमारे मोहल्ले के मकान सुने हो गए। उनमें सिर्फ बूढ़े माँ बाप पड़े हैं और फिर कब धीरे धीरे ऐसे मकानों से मोहल्ले सुने होते चले गये। इसका जायज़ा कभी लिया जाय की कितने घरो में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं और कितने बाहर निकलकर बड़े शहरों में जाकर बस गए हैं। कभी हम एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलने की कोशिश करें, जहां से हम बचपन मे स्कूल जाते समय या दोस्तो के संग हुल्लड बाजी करते हुए निकलते थे। तिरछी नज़रो से झांकने पर लगभग हर घर से चुपचाप सी सुनसानीयत मिलती है। ना कोई आवाज़, ना बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को तकते बूढ़े जरूर मिल जाते हैं।

भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि हमारे बच्चे बेहतर से बेहतर पढ़ें। हमें लगता है या फिर दूसरे लोग ऐसा लगवाने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से बच्चों का भविष्य खराब हो जाएगा या फिर बच्चा बिगड़ जाएगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते है बड़े शहरों के हास्टलों में। अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का पाठ्यक्रम और किताबें वही हो, मगर मानसिक पर दवाब सा आ जाता है, बड़े शहर में पढ़ने भेजने का। हालांकि बाहर भेजने पर भी मुश्किल से 1% बच्चे ही IIT, PMT आदि निकाल पाते हैं और फिर मां बाप बाकी बच्चों का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखला कराते हैं। 3-4 साल बाहर पढ़ते पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते है और फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते है। अब त्यौहारों पर घर आते हैं माँ बाप के पास। माँ बाप भी सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं, उनके पैकेज के बारे में बताते है। कुछ साल में ..... मां बाप बूढ़े हो जाते हैं और बच्चों ने लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लिये हैं। अब अपना फ्लैट है तो त्यौहारों पर भी आना बंद। सिर्फ कोई जरूरी शादी विवाह में आते जाते हैं। अब शादी विवाह भी बडे विवाह भवन में होते हैं तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है। हाँ, शादी विवाह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहां रखा ही क्या है?

खैर, बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर मे रहने लगते हैं। अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं की बूढ़े खांसते बीमार माँ बाप को साथ में रखा जाए। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनवाये हुए या अपने पैतृक मकानों में। अब कोई बच्चा "बागवान पिक्चर" की तरह मां बाप को आधा - आधा रखने को भी तैयार नहीं है। अब बस घर खाली खाली, मकान खाली खाली और धीरे धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं "प्रॉपर्टी डीलर" जिनकी गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर है और ये प्रॉपर्टी डीलर सबसे ज्यादा ज्ञान बांटते हैं कि छोटे शहर में रखा ही क्या है। साथ ही ये किसी बड़े लाला को इन खाली होते मकानों में मार्किट और गोदामों का सुनहरा भविष्य दिखाने लगते हैं। बाबू जी और अम्मा जी को भी बेटे बहु के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने सुनहरे सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते है। हम खुद अपने ऐसे पड़ोसी के मकान पर नज़र रखते हैं और खरीद लेते हैं कि मार्केट बनाएंगे या गोदाम, जबकि खुद का बेटा छोड़कर किसी बडे शहर की बडी कंपनी में काम कर रहा है। इसलिए हम खुद भी इसमें नहीं बस पाएंगे।

हर दूसरा घर, हर तीसरा या चौथा परिवार......सभी के बच्चे बाहर निकल गए है। वही बड़े शहर में मकान ले लिया है, बच्चे पढ़ रहे है.....अब वो वापस नहीं आएंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है ..... अंग्रेज़ी मध्यम स्कूल नहीं हैं, हॉबी क्लासेज नहीं हैं, IIT/PMT की कोचिंग नहीं हैं, मॉल नही है, माहौल नहीं हैं ....... कुछ नहीं है, आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा। यदि UPSC CIVIL SERVICES का रिजल्ट उठा कर देखा जाय तो सबसे ज्यादा लोग ऐसे छोटे शहरों से ही मिलेंगे। बस मन का वहम है।

मेरे जैसे भावनात्मक/ मुर्ख लोगों के मन के किसी कोने में होता है कि भले ही कहीं जमीन खरीद लें मगर रहें अपने इसी छोटे शहर में अपने लोगों के बीच में। पर जैसे ही मन की बात रखते हैं, तथाकथित बुद्धिजीवी पड़ोसी समझाने आ जाते है कि "अरे पागल हो गए हो, यहाँ बसोगे, यहां क्या रखा है?" वो भी गिद्ध की तरह मकान बिकने का इंतज़ार करते है, बस सीधे कह नहीं सकते।

अब ये मॉल, ये बड़े स्कूल, ये बड़े टॉवर वाले मकान.....सिर्फ इनसे तो ज़िन्दगी नही चलेगी। एक वक्त, यानी बुढापा ऐसा आता है जब हमें अपनो की ज़रूरत होती है और ये अपने हमें छोटे शहरों या गांवो में मिल सकते है। बडे शहरों में तो शव यात्रा चार कंधो पर नहीं बल्कि किसी गाडी से ले जाना पडेगा, सीधे शमशान, शायद एक दो रिश्तेदार बस.....और सब समाप्त।

ये खाली होते मकान, ये सुने होते मुहल्ले......इन्हें सिर्फ प्रोपेर्टी की नज़र से देखना बन्द करना होगा, इन्हें जीवन की खोती जीवंतता की नज़र से देखना होगा। हम पड़ोसी विहीन हो रहे है। हम वीरान हो रहे है...…. जन्मस्थानों के प्रति मोह जगृत करना होगा, प्रेम जगाना होगा।

इस विचार का अपवाद सम्भव है या यह भी सम्भव है यह विचार ही गलत हो ।



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