आधुनिकता की बयार में बर्बाद होती मधुर भारतीय गंवई संस्कृति


सम्पादकीय - जगदीश सिंह

दुखाते हो दिल माँ बाप का। तेरे सीने में शायद दिल नहीं है।।
वह जो माँ बाप का कहना न माने। पढ लिखकर भी क्या वह जाहील नहीं है।।


बदलता गांव बदलता परिवेश, बदलती शहर बदलता देश, हर तरफ उन्माद अपराध का बोलबाला, अपराध में खुद शामिल हो गया कानून का रखवाला। खत्म हो रही है इन्सानियत की चाहत हर तरफ वैमनस्यता, बेचारगी, भरी आफत। किसी का कोई सुनने वाला नहीं खत्म हो रही है भाई चारगी। सङकों, गांव की गलियों, बाजार के चौराहों पर हर वक्त देखा जा सकता है, नयी पीढी की आवारगी। बेखौफ बिंदास बेअन्दाज निकल रहे हैं। गन्दे अल्फाज न कोई बङा ना छोटा ना अपना ना पराया, सब कुछ आधुनिकता के दावानल में सुलग रहा है। हैवानियत का धुआं समाज को कर रहा है विषाक्त।

एक जमाना था खास कर गांवों में तहजीब ही तरक्की की मिसाल बनती थी। संयुक्त परिवार में भी दमकती थी व्यवस्था। आपसी भाई चारगी, सादगी में देश की पुरातन विरासत झलकती थी,। गवयी माहौल, खुशहाल खेत खलिहान, कूंकती कोयल के सुरीले बोल पर होता था विहान। तीज त्यौहार, गंगा दशहरा, पूर्णिमा का नहान खीचङी, फगुआ, सतुआन, सब कुछ आधुनिकता की भेंट चढ गया। खत्म होती जा रही है भोजपूरी बोली की भाषा ठेठ।

अब बाबू जी, दादा, माई के जगह डैडी, अंकल, मम्मी का प्रचलन जारी है। समाप्ति के कगार पर है कुर्ता धोती के पहनावे का चलन। खत्म हो गयी डोली कहार की परम्परा।अब तो महंगी गाङीयों से गावों में भी आती है दुल्हन। वसन्त के मदमस्त महीने में गावों के चारों तरफ बगीचों में महकती आम की मंजरी गमकते महुआ के पेङ अनुपम छटा बिखेरते सेमल पलास के फूल आम के बगीचों में कूकती कोयल, सिवान में कुलाचे मारते हिरन व लीलगाय के झूण्ङ, बेफिक्र सतुआ, कचरस, मकई का दाना खाकर मुस्कराता गंवई।जीवन में सब कुछ बदल गया।

आधुनिकता के नाम पर देह ऊघारू कपङा, रोजाना शराब के नशा में झूमते नौजवानों का बढता लफङा, सिमटता खेत, खलिहान, उजङते बाग बगीचे गांव के गांव पशु विहीन, दरवाजा। मन्दिर, मस्जिदों के उपर बज रहा है कानफाङू बाजा। समाप्त हो गयी अजान की मिठास मन्दिरों में घण्टा घङियाल की आवाज? आखिर कहाँ जा रहा है समाज? आधुनिकता में अपना वजूद खत्म करने वाले अपने को कहते हैं, आधुनिक। जब की पुरातन व्यवस्था खत्म हो रही है आस्था बदल गयी हर आदमी का रास्ता बदल गया, ना किसी से मेल ना समरसता हर तरफ एकाकी जीवन की नीरसता। दिन रात बढ रही है, गांव कस्बा शहर में विलासिता। अब तो वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढी पूछेगी गुजरे हुए कल की दास्ताँ।

ना बैलों की जोङी ना गायों का झूण्ङ ना गांवों में अब रहा पानी का कुण्ङ। सुबह सुबह सरकाई ल खटिया जाङा लगी के बेहूदगी भरे गाने खत्म हो गये भजन और देश भक्ति के तराने? आधुनिक पीढी की बदल रही है सोच, माँ बाप घरों पर बन रहे है बोझ। अब नहीं रहा पूराना वाला सम्मान ना नाई ना बारी ना पण्ङित जी का कोई रह गया यजमान। हर तरफ अजीब तरह का मंजर खेत खलिहान बाग बगीचे बन रहे है बंजर। अपमानित हो रहे माँ बाप घर घर आधुनिकता के कहर से समाज में घुल रहा है जहर। आने वाला कल बदलते परिवेश में आधुनिक समाज के नाम पर अपनी पुरानी विरासत की बर्बादी का सन्देश लेकर आ रहा है। मिलावट का दौर है आधुनिकता में ङूबा गांव और शहर है। अन्न पानी सब कुछ बन रहा जहर है। फिर भी हम चेत नही रहें है। धङल्ले से पुराने पेङों की कटान से वीरान हो गया गांव का सीवान यदि समय रहते व्यवस्था नहीं बदली तो निश्चिथ रूप से हम आप खुद अपनी बर्बादी के जिम्मेदार होगें। आने वाली पीढी कभी माफ नहीं करेंगी? जीवन दायनी नदियाँ सूख रही हैं, हरे पेङ काटे जा रहे हैं। ताल तलैया पोखरी पाटे जा रहे है फिर कैसे ऊम्मीद कर रहे हैं आने वाले कल में खुशहाल जिन्दगीं की अब तो वही बात न हुई न मन पछताइहे अवसर बीते। अब भी समय है अपनी पुरातन धरोहर को बचाएं अपनी परम्पराओं को सम्भालें ताकी आने वाला कल सूखमय हो सके।

जय हिन्द



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