पेडों की अंधाधुंध कटाई से विनाश की ओर बढती मानव सभ्यता


सम्पादकीय - जगदीश सिंह

बाग बगीचों गांव गांव से खतम हो रही अमराई।
पता ही नहीं चलता कब वसन्त ऋतु है आयी।।


नव वर्ष का आगमन यूँ तो सनातन व्यवस्था के हिसाब से नहीं है लेकिन पूरी दुनिया जिस व्यवस्था में नये साल का जश्न मनाती है उसके हिसाब से साल का पहला माह मायूसी लिये बिना कोहरे की चादर ओढ़े चुपचाप अपने मन्जिल के तरफ फिर कभी इस सदी में ना आने की कसक लिये चला जा रहा है।

मधुमास का आगमन होने वाला है। लेकिन बदलते जमाने में "हरे पेङों" की लगातार कटान के चलते बागों मे कूकती कोयल, चहकते पपीहों के बोल, रस मन्जरी की महक से गमगमाती हवा के झोंके, पलाश और टेसू के मुस्कुराते फूल कहीं नही दिखाई देते। वनों में, बागानों में, बगरायो बसन्त वाली बात अब सही नहीं लगती। खेतों में लहलहाती बालियाँ, महुआ की महकती आबो हवा, सुबह सुबह भवरों का गुन्जन, तितलियों का अठखेलियां करता झून्ङ और भोरहरी मे देबी गीतों से सुबह में ताजगी भरने वाले गवंई माहौल सब कुछ समाप्ती की कगार पर हैं।

आज से चार पांच दशक पहले तक घने, बागों, जंगलों से आच्छादित गांव अब विरान हो गये हैं। न कही महुआ है, न कहीं आमों की अमराई है। न तो गावों में बैल कोल्हू से हो रही गन्ने की पेराई है, न वो आबो हवा है, न वो महक है, ना सुगन्ध है। ना चहचहाते पक्षियों का कलरव करता विहंगम नजारा है। अब ना गावों में बैलों की जोङी है, ना ही घुघुरूओं की आवाज है। ना फागुन का वो ढोल मजीरा है, ना वो पूराना आवाज है, ना साज है सब कुछ बदल गया।

जिस गति से हरे पेङों को काटा जा रहा है, वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढी फलदार पेङों के बारे मे केवल किताब तक ही समझ पाये। ना पुराने बरगद हैं, ना पुराने विशालकाय इमली के पेड़, ना कीमती शीशम, न आम, ना मुहआ, सब समाप्ती के करीब हैं। अब तो हालात इस कदर बदतर हो गये हैं कि

छीन ली हालात ने किलकारियां
पक्षियों से चहचहाहट छीन ली
सबने मिलकर मुस्कराहट छीन ली
खुश्क होठों की सजावट छीन ली।।


आज भी इस कायनात के दुश्मनों ने हरियाली को समाप्त करने का बीणा ही उठा लिया है। बिना रोक टोक खुलेयाम धडल्ले से इस धरा की अमूल्य धरोहर का विनाश कर रहे हैं। सरकार की व्यवस्था फेल है। जीव जन्तु पशु पक्षी सब बे सहारा हो गये।

है तेरे हाथ मे अब लाज उसकी रब्बे करीम।
परीन्दा शर्त लगा बैठा है आसमान के साथ।।


इस धरा की अनुपम छटा को विस्तारित करने वाले बाग बगीचों वनों के विनाश के चलते हर तरफ तबाही का नजारा है। एक तरफ नदियों की कटान, तो दुसरी तरफ गाँव के गांव वीरान, सुनसान हो गये सीवान हैं। दिन भर घर आँगन में चहचहाने वाली, गौरैया से सूना हो गया खेत खलिहान है। किसी की लिखी यह चन्द लाईने वास्तविकता का बोध करा रही हैं कि

ऐ परिन्दें चह चहाना भूल जा
पेङ पर अब घर बसाना भूल जा
कट गये अब पेङ बस्ती बस गयी
शाखे गुल पर आशियाना भूल जा।



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